प्रथम विश्व युद्ध के कारण एवं परिणाम | First World War Kyu Hua | प्रथम विश्व युद्ध के उत्तरदायी कारण क्या थे - StudyWithAMC : ITI, Apprentice, Technical Trade, Govt Jobs

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बुधवार, 14 जुलाई 2021

प्रथम विश्व युद्ध के कारण एवं परिणाम | First World War Kyu Hua | प्रथम विश्व युद्ध के उत्तरदायी कारण क्या थे

प्रथम विश्व युद्ध के कारण एवं परिणाम | First World War Kyu Hua | प्रथम विश्व युद्ध के उत्तरदायी कारण क्या थे

प्रथम विश्व युद्ध के कारण एवं परिणाम | First World War Kyu Hua | प्रथम विश्व युद्ध के उत्तरदायी कारण क्या थे

प्रथम विश्व युद्ध का कारण और उसके बारे में जानकारी  (First World War Kyu Hua, World war 1  history, Reason, Result in Hindi)

प्रथम विश्व युद्ध को ग्रेट वार अथवा ग्लोबल वार भी कहा जाता है. उस समय ऐसा माना गया कि इस युद्ध के बाद सारे युद्ध ख़त्म हो जायेंगे, अतः इसे ‘वॉर टू एंड आल वार्स’ भी कहा गया. किन्तु ऐसा कुछ हुआ नहीं और इस युद्ध के कुछ सालों बाद द्वितीय विश्व युद्ध भी हुआ. इसे ग्रेट वार इसलिए कहा गया है कि इस समय तक इससे बड़ा युद्ध नहीं हुआ था. यह लड़ाई 28 जुलाई 1914 से लेकर 11 नवम्बर 1918 तक चली थी, जिसमे मरने वालों की संख्या एक करोड़ सत्तर लाख थी. इस आंकड़े में एक करोड़ दस लाख सिपाही और लगभग 60 लाख आम नागरिक मारे गये. इस युद्ध में ज़ख़्मी लोगों की संख्या 2 करोड़ थी.

प्रथम विश्व युद्ध में दो योद्धा दल (First World War Two Powers)

इस युद्ध में एक तरफ अलाइड शक्ति और दूसरी तरफ सेंट्रल शक्ति थे. अलाइड शक्ति में रूस, फ्रांस, ब्रिटेन, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और जापान था. संयुक्त राष्ट्र अमेरिका इस युद्ध में साल 1917- 18  के दौरान संलग्न रहा. सेंट्रल शक्ति में केवल 3 देश मौजूद थे. ये तीन देश ऑस्ट्रो- हंगेरियन, जर्मनी और ओटोमन एम्पायर था. इस समय ऑस्ट्रो- हंगरी में हब्स्बर्ग नामक वंश का शासन था. ओटोमन आज के समय में ओटोमन तुर्की का इलाक़ा है.


प्रथम विश्व युद्ध के कारण (First World War Reason in hindi)

प्रथम विश्व युद्ध के चार मुख्य कारण हैं. इन कारणों को MAIN के रूप में याद रखा जाता है. इस शब्द में M मिलिट्रीज्म, A अलायन्स सिस्टम, I इम्पेरिअलिस्म और N नेशनलिज्म के लिए आया है.

मिलिट्रीज्म : मिलिट्रीज्म में हर देश ने ख़ुद को हर तरह के आधुनिक हथियारों से लैस करने का प्रयास किया. इस प्रयास के अंतर्गत सभी देशों ने अपने अपने देश में इस समय आविष्कार होने वाले मशीन गन, टैंक, बन्दुक लगे 3 बड़े जहाज़, बड़ी आर्मी का कांसेप्ट आदि का आविर्भाव हुआ. कई देशों ने भविष्य के युद्धों की तैयारी में बड़े बड़े आर्मी तैयार कर दिए. इन सभी चीज़ों में ब्रिटेन और जर्मनी दोनों काफ़ी आगे थे. इनके आगे होने की वजह इन देशों में औद्योगिक क्रांति का बढ़ना था. औद्योगिक क्रान्ति की वजह से यह देश बहुत अधिक विकसित हुए और अपनी सैन्य क्षमता को बढाया. इन दोनों देशों ने अपने इंडस्ट्रियल कोम्प्लेक्सेस का इस्तेमाल अपनी सैन्य क्षमता को बढाने के लिए किया, जैसे बड़ी बड़ी विभिन्न कम्पनियों में मशीन गन का, टैंक आदि के निर्माण कार्य चलने लगे. इस समय विश्व के अन्य देश चाहते थे कि वे ब्रिटेन और जर्मनी की बराबरी कर लें किन्तु ऐसा होना बहुत मुश्किल था. मिलिट्रीज्म की वजह से कुछ देशों में ये अवधारणा बन गयी कि उनकी सैन्य क्षमता अति उत्कृष्ट है और उन्हें कोई किसी भी तरह से हरा नहीं सकता है. ये एक ग़लत अवधारणा थी और इसी अवधारणा के पीछे कई लोगों ने अपनी मिलिट्री का आकार बड़ा किया. अतः मॉडर्न आर्मी का कांसेप्ट यहीं से शुरू हुआ.

विभिन्न संधीयाँ यानि गठबंधन प्रणाली : यूरोप में 19वीं शताब्दी के दौरान शक्ति में संतुलन स्थापित करने के लिए विभिन्न देशों ने अलायन्स अथवा संधियाँ बनानी शुरू की. इस समय कई तरह की संधियाँ गुप्त रूप से हो रही थी. जैसे किसी तीसरे देश को ये पता नहीं चलता था कि उनके सामने के दो देशों के मध्य क्या संधि हुई है. इस समय में मुख्य तौर पर दो संधियाँ हुई, जिसके दूरगामी परिणाम हुए. इन दोनों संधि के विषय में दिया जा रहा है,

साल 1882 का ट्रिपल अलायन्स : साल 1882 में जर्मनी ऑस्ट्रिया- हंगरी और इटली के बीच संधि हुई थी.

साल 1907 का ट्रिपल इंटेंट : साल 1907 में फ्रांस, ब्रिटेन और रूस के बीच ट्रिपल इंटेंट हुआ. साल 1904 में ब्रिटेन और रूस के बीच कोर्दिअल इंटेंट नामक संधि हुई. इसके साथ रूस जुड़ने के बाद ट्रिपल इंटेंट के नाम से जाना गया.

यद्यपि इटली, जर्मनी और ऑस्ट्रिया- हंगरी के साथ था किन्तु युद्ध के दौरान इसने अपना पाला बदल लिया था और फ्रांस एवं ब्रिटेन के साथ लड़ाई लड़नी शुरू की.


साम्राज्यवाद : इस समय जितने भी पश्चिमी यूरोप के देश हैं वो चाहते थे, कि उनके कॉलोनिस या विस्तार अफ्रीका और एशिया में भी फैले. इस घटना को ‘स्क्रेम्बल ऑफ़ अफ्रीका’ यानि अफ्रीका की दौड़ भी कहा गया, इसका मतलब ये था कि अफ्रिका अपने जितने अधिक क्षेत्र बचा सकता है बचा ले, क्योंकि इस समय अफ्रीका का क्षेत्र बहुत बड़ा था. यह समय 1880 के बाद का था जब सभी बड़े देश अफ्रीका पर क़ब्ज़ा कर रहे थे. इन देशों में फ्रांस, जर्मनी, होलैंड बेल्जियम आदि थे. इन सभी देशों का नेतृत्व ब्रिटेन कर रहा था. इस नेतृत्व की वजह ये थी कि ब्रिटेन इस समय काफ़ी सफ़ल देश था और बाक़ी देश इसके विकास मॉडल को कॉपी करना चाहते थे. पूरी दुनिया के 25% हिस्से पर एक समय ब्रिटिश शासन का राजस्व था. इस 25% क्षेत्र की वजह से इनके पास बहुत अधिक संसाधन आ गये थे. इसकी वजह से इनकी सैन्य क्षमता में भी खूब वृद्धि हुई. इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत से 13 लाख सैनिकों ने प्रथम विश्व युद्ध में लड़ाई लड़ने के लिए भेजे गये. ब्रिटेन आर्मी में जितनी भारतीय सेना थी, उतनी ब्रिटेन सेना नहीं थी. भारतीय सेना द्वारा हुई सर्जिकल स्ट्राइक यहाँ पढ़ें.

राष्ट्रवाद : उन्नसवीं शताब्दी मे देश भक्ति की भावना ने पूरे यूरोप को अपने कब्जे में कर लिया. जर्मनी, इटली, अन्य बोल्टिक देश आदि जगह पर राष्ट्रवाद पूरी तरह से फ़ैल चूका था. इस वजह से ये लड़ाई एक ग्लोरिअस लड़ाई के रूप मे भी सामने आई और ये लड़ाई ‘ग्लोरी ऑफ़ वार’ कहलाई. इन देशों को लगने लगा कि कोई भी देश लड़ाई लड़ के और जीत के ही महान बन सकता है. इस तरह से देश की महानता को उसके क्षेत्रफल से जोड़ के देखा जाने लगा.

प्रथम विश्वयुद्ध के पहले एक पोस्टर बना था, जिसमे कई देश एक दुसरे के पीछे से प्रहार करते हुए नज़र आये. इसमें साइबेरिया को सबसे छोते बच्चे के रूप में दिखाया गया. इस पोस्टर में साइबेरिया अपने पीछे खड़े ऑस्ट्रिया को कह रहा था यदि तुम मुझे मारोगे तो रूस तुम्हे मारेगा. इसी तरह यदि रूस ऑस्ट्रिया को मरता है तो जर्मनी रूस को मारेगा. इस तरह सभी एक दुसरे के दुश्मन हो गये, जबकि झगड़ा सिर्फ साइबेरिया और ऑस्ट्रिया के बीच में था.

प्रथम विश्व युद्ध सम्बंधित धारणाये (First World War Immediate Cause)

इस समय यूरोप में युद्ध संबधित धारणाएँ बनी कि तकनीकी विकास होने की वजह से जिस तरह शस्त्र वगैरह तैयार हुए हैं, उनकी वजह से अब यदि युद्ध हुए तो बहुत कम समय में युद्ध ख़त्म हो जाएगा, किन्तु ऐसा हुआ नहीं. इस समय युद्ध को अलग अलग अखबारों, लेखकों ने गौरव से जोड़ना शुरू किया. उनके अनुसार युद्ध किसी भी देश के निर्माण के लिए बहुत ज़रूरी है, बिना किसी युद्ध के न तो कोई देश बन सकता है और न ही किसी तरह से भी महान हो सकता है और न ही तरक्की कर सकता है. अतः युद्ध अनिवार्य है.

प्रथम विश्व युद्ध में यूरोप का पाउडर केग (First World War Europe Balkans)  

बाल्कन को यूरोप का पाउडर केग कहा जाता है. पाउडर केग का मतलब बारूद से भरा कंटेनर होता है, जिसमे कभी भी आग लग सकती है. बाल्कन देशों के बीच साल 1890 से 1912 के बीच वर्चास्व की लड़ाईयां चलीं. इन युद्ध में साइबेरिया, बोस्निया, क्रोएसिया, मॉन्टेंगरो, अल्बानिया, रोमानिया और बल्गारिया आदि देश दिखे थे. ये सभी देश पहले ओटोमन एम्पायर के अंतर्गत आता था, किन्तु उन्नीसवीं सदी के दौरान इन देशों के अन्दर भी `स्वतंत्र होने की भावना जागी और इन्होने ख़ुद को बल्गेरिया से आज़ाद कर लिया. इस वजह से बाल्कन मे हमेशा लड़ाइयाँ जारी रहीं. इस 22 वर्षों में तीन अलग अलग लड़ाईयां लड़ी गयीं.

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान आर्कड्यूक फ्रान्ज़ फर्डीनांड की हत्या (First World War Austrian Prince Death)

आर्कड्यूक फ्रान्ज़ फर्डीनांड ऑस्ट्रिया के प्रिन्स थे और इस राज्य के अगले राजा बनने वाले थे. इस समय ये साराजेवो, जो कि बोस्निया में है, वहाँ अपनी पत्नी के साथ घुमने आये थे. ये समय जून 1914 का था. इन पर यहीं गर्विलो प्रिंसेप नामक आदमी ने हमला किया और इन्हें मार दिया. इनकी हत्या में एक ‘ब्लैक हैण्ड’ नामक संस्था का भी हाथ था. इस हत्या के बाद साइबेरिया को धमकियाँ मिलनी शुरू हुई. ऑस्ट्रिया को ऐसा लगता था कि साइबेरिया जो कि बोस्निया को आज़ादी दिलाने में मदद कर रहा था, इस हत्या में शामिल है.

प्रथम विश्व युद्ध के मुख्य वजह और जुलाई क्राइसिस (First World War July Crisis)

ऑस्ट्रिया ने इस हत्या के बाद साइबेरिया को अल्टीमेटम दिया कि वे जल्द ही आत्मसमर्पण कर दें और साइबेरिया ऑस्ट्रिया के अधीन हो जाए. इस मसले पर साइबेरिया ने रूस से मदद माँगी और रूस को बाल्टिक्स में हस्तक्षेप करने का एक और मौक़ा मिल गया. रूस का साइबेरिया को मदद करने का एक कारण स्लाविक साइबेरिया को सपोर्ट करना भी था. रूस और साइबेरिया दोनों में रहने वाले लोग को स्लाविक कहा जाता है. इसी समय ऑस्ट्रिया हंगरी ने जर्मनी से मदद मांगनी शुरू की. इस पर जर्मनी ने ऑस्ट्रिया हंगरी को एक ‘ब्लेंक चेक’ देने की बात कही और कहा कि आप जो करना चाहते हों करें जर्मनी आपको पूरा सहयोग देगा. जर्मनी का समर्थन पा कर ऑस्ट्रिया हंगरी ने साइबेरिया पर हमला करना शुरू किया. इसके बाद रूस ने जर्मनी से लड़ाई की घोषणा की. फिर कुछ दिन बाद फ्रांस ने भी जर्मनी से लड़ाई की घोषणा कर दी. फ्रांस के लड़ने की वजह ट्रिपल इंटेंट संधि थी. इस समय तक ब्रिटेन इस युद्ध में शामिल नहीं हुआ था तब इटली ने भी युद्ध करने से मना कर दिया था. इटली का कहना था कि ट्रिपल इंटेंट के तहत यदि कोई और हम तीनों में से किसी पर हमला करता है तब हम इकट्ठे होंगे न कि किसी दुसरे देश के लिए.      

प्रथम विश्व युद्ध का समय (First World War Time)

जुलाई क्राइसिस के बाद अगस्त में युद्ध शुरू हो गया. इस समय जर्मनी ने एक योजना बनायी, जिसके तहत उसने पहले फ्रांस को हराने की सोची. इसके लिए उन्होंने बेल्जियम का रास्ता चुना. जैसे ही जर्मनी की मिलिट्री ने बेल्जियम में प्रवेश किया, उधर से ब्रिटेन ने जर्मनी पर हमला कर दिया. इसकी वजह ये थी कि बेल्जियम और ब्रिटेन के बीच सन 1839 में एक समझौता हुआ था. जर्मनी इस समय फ्रांस में घुसने में सफ़ल रहे हालाँकि पेरिस तक नहीं पहुँच पाए. इसके बाद जर्मनी की सेनाओं ने ईस्ट फ्रंट पर रूस को हरा दिया. यहाँ पर लगभग 3 लाख रूसी सैनिक शहीद हुए. इस दौरान ओटोमन एम्पायर ने भी रूस पर हमला कर दिया. इसकी एक वजह ये भी थी कि ओटोमन और रूस दोनों लम्बे समय से एक दुसरे के दुश्मन रहे थे. इसी के साथ ओटोमन ने सुएज कैनाल पर भी हमला कर दिया. इसकी वजह ये थी कि ब्रिटेन आइलैंड को भारत से जोड़ने के लिए एक बहुत बड़ी कड़ी थी. यदि इस सुरंग पर ओटोमन का अधिपत्य हो जाता तो ब्रिटेन प्रथम विश्व युद्ध हार भी सकता था. हालाँकि सुएज कैनाल बचा लिया गया.

प्रथम विश्व युद्ध के समय के ट्रेंच (First World War Trenches)

ट्रेंच युद्ध में वो जगह होती है, जहाँ पर सैनिक रहते हैं, जहाँ से लड़ाई लड़ते हैं, खाना पीना और सोना भी इसी जगह पर होता है. प्रथम विश्व युद्ध में पहली बार इतने लम्बे ट्रेंच बनाए गये. फ्रांस और जर्मनी फ्रंट 3 साल तक ऐसे ही आमने सामने रहे. न तो फ्रांस को आगे बढ़ने का मौक़ा मिला और न ही जर्मनी को. ट्रेंच बनाने का मुख्य कारण आर्टिलरी शेल्लिंग से बचना था. इसकी सहायता से आर्टिलरी गोलों से बचने में मदद मिलती थी, किन्तु बारिश और अन्य मौसमी मार की वजह से कई सारे सैनिक सिर्फ बीमारी से मारे गये. जिस भी समय कोई सैनिक ट्रेंच से बाहर निकलता था, उसी समय दुसरी तरफ से मशीन गन से गोलीबारी शुरू हो जाती और सैनिक मारे जाते. सन 1916 में एक सोम की लड़ाई हुई थी जिसमे एक दिन में 80,000 सैनिक मारे गये. इसमें अधिकतर ब्रिटेन और कनाडा के सैनिक मौजूद थे. कुल मिलाकर इस युद्ध में 3 लाख सैनिक मारे गये.

प्रथम विश्व युद्ध ग्लोबल वार क्यों कहा जाता है (Why was World War One The First Global War)

इस समय लगभग पूरी दुनिया में लड़ाई छिड़ी हुई थी. इस वहज से इसे ग्लोबल वर कहा जाता है. अफ्रीका स्थित जर्मनी की कॉलोनिस जैसे टोगो, तंज़ानिया और कैमरून आदि जगहों पर फ्रांस ने हमला कर दिया. इसके अलावा माइक्रोनेशिया और चीनी जर्मन कॉलोनिस पर जापान ने हमला कर दिया. इस युद्ध में जापान के शामिल होने की वजह ब्रिटेन और जापान के बीच का समझौता था. इसके साथ ही ओटोमन जहाज़ों ने ब्लैक सागर के रूसी बंदरगाहों पर हमले करना शुरू कर दिया. ब्लैक सी में स्थित सेवास्तापोल रूस का सबसे महत्वपूर्ण नवल बेस है. गल्लिपोली टर्की में स्थित एक राज्य है, जहाँ पर अलाइड बलों ने हमले शुरू कर दिए. यहाँ पर ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैण्ड के सैन्य बल लड़ रहे थे. इस आर्मी को अन्ज़क आर्मी कहा जाता था. हालाँकि यहाँ पर इस आर्मी को किसी तरह की सफलता नहीं मिली. इस युद्ध की याद में आज भी ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैण्ड के बीच अन्ज़क डे मनाया जाता है.

प्रथम विश्व युद्ध के कारण एवं परिणाम | First World War Kyu Hua | प्रथम विश्व युद्ध के उत्तरदायी कारण क्या थे

इसी के साथ कई बड़े महासागरों में भी नेवी युद्ध शुरू हुए. इसके बाद जर्मनी ने एक पनडुब्बी तैयार किया था जिसका नाम था यू बोट. इस यू बोट ने सभी अलाइड जहाजों पर हमला करना शुरू कर दिया. शुरू में जर्मन के इस यू बोट ने सिर्फ नेवी जहाज़ों पर हमले किये किन्तु बाद में इस जहाज ने आम नागरिकों के जहाजों पर भी हमला करना शुरू कर दिया. ऐसा ही एक हमला लूसीतानिया नामक एक जहाज़ जो कि अमेरिका से यूरोप के बीच आम लोगों को लाने ले जाने का काम करती थी, उस पर हमला हुआ और लगभग 1200 लोग मारे गये. ये घटना अटलांटिक महासागर में हुई थी. इस हमले के बाद ही अमेरिका साल 1917 में प्रथम विश्व युद्ध में शामिल हो गया और अलाइड शक्तियों का साथ देने लगा. इस समय अमेरिका के राष्ट्रपति वूड्रो विल्सन थे. हालाँकि शुरू में अमेरिका किसी भी तरह से यूरोप की इस लड़ाई में शामिल नहीं होना चाहता था, किन्तु अंततः इसे भी इस युद्ध में शामिल होना पड़ा.

प्रथम विश्व युद्ध में भारत का प्रदर्शन (First World War Indian Army)

प्रथम विश्व युद्ध में लगभग 13 लाख भारतीय ब्रिटिश आर्मी की तरफ़ से लड़ रहे थे. ये भारतीय सैनिक फ्रांस, इराक, ईजिप्ट आदि जगहों पर लडे, जिसमे लगभग 50,000 सैनिकों को शहादत मिली. तीसरे एंग्लो अफ़ग़ान वार और प्रथम विश्व युद्ध में शहीद हुए सैनिकों की याद में इंडिया गेट का निर्माण किया गया.

युद्ध के लिये उत्तरदायी कौन था?


युद्ध में सम्मिलित कोई भी देश युद्ध के लिये स्वयं को उत्तरदायी नहीं मानता था बल्कि वे यह दावा करते थे कि उन्होंने शांति व्यवस्था बनाए रखने की चेष्टा की लेकिन शत्रु राष्ट्र की नीतियों के कारण युद्ध हुआ। हालाँकि वर्साय संधि की एक धारा में जर्मनी और उसके सहयोगी राष्ट्रों को युद्ध के लिये उत्तरदायी माना गया किंतु यह मित्र राष्ट्रों का एक पक्षीय निर्णय था।

वस्तुतः प्रथम विश्व युद्ध के लिये सभी राष्ट्र उत्तरदायी थे, सिर्फ जर्मनी ही इसके लिये जवाबदेह नहीं था। सर्बिया ने ऑस्ट्रिया की जायज़ मांगों को अस्वीकार कर युद्ध आरंभ करवा दिया तथा ऑस्ट्रिया द्वारा युद्ध की घोषणा किये जाने से रूस सैनिक कार्रवाई करने के लिये बाध्य हुआ।

सर्बिया की समस्या को कूटनीतिक स्तर पर हल करने के बजाय रूस ने इसका समाधान सैनिक कार्यवाही द्वारा करने का निर्णय लिया। जर्मनी की मजबूरी यह थी कि वह अपने मित्र राष्ट्र ऑस्ट्रिया का साथ नहीं छोड़ सकता था, इसलिये रूस द्वारा सैनिक कार्यवाही आरंभ होने पर जर्मनी भी सैन्य कार्रवाई हेतु बाध्य हुआ।
इंग्लैंड ने भी युद्ध की स्थिति को टालने के लिये कोई ठोस कदम नहीं उठाया। उसने अपने सहयोगी राष्ट्रों को भी युद्ध से अलग रहने की सलाह नहीं दी, फलतः दोनों गुटों के राष्ट्र युद्ध में सम्मिलित होते गए और एक छोटा युद्ध विश्व युद्ध में परिणत हो गया।

इस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध के लिये सभी राष्ट्र उत्तरदायी थे, इसके लिये किसी एक राष्ट्र को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है।

प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम 

आर्थिक परिणाम: प्रथम विश्व युद्ध में भाग लेने वाले देशों का बहुत अधिक धन खर्च हुआ। जर्मनी और ग्रेट ब्रिटेन ने अपनी अर्थव्यवस्था से प्राप्त धन का लगभग 60% हिस्सा युद्ध में खर्च किया। देशों को करों को बढ़ाना पड़ा और अपने नागरिकों से धन भी उधार लेना पड़ा। उन्होंने हथियार खरीदने तथा युद्ध के लिये आवश्यक अन्य चीजों हेतु भी अपार धन व्यय किया। इस स्थिति ने युद्ध के बाद मुद्रास्फीति को जन्म दिया।
राजनीतिक परिणाम: प्रथम विश्व युद्ध ने चार राजतंत्रों को समाप्त कर दिया। रूस के सीज़र निकोलस द्वितीय, जर्मनी के कैसर विल्हेम, ऑस्ट्रिया के सम्राट चार्ल्स और ओटोमन साम्राज्य के सुल्तान को पद छोड़ना पड़ा।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद विश्व मानचित्र में परिवर्तन आया, साम्राज्यों के विघटन के साथ ही पोलैंड ,चेकोस्लोवाकिया, युगोस्लाविया जैसे नए राष्ट्रों का उदय हुआ।
ऑस्ट्रिया, जर्मनी, फ्राँस और रूस की सीमाएँ बदल गईं।
बाल्टिक साम्राज्य, रूसी साम्राज्य से स्वतंत्र कर दिये गए।
एशियाई और अफ्रीकी उपनिवेशों पर मित्र राष्ट्रों का अधिकार होने से वहाँ भी परिस्थिति बदली। इसी प्रकार जापान को भी अनेक नए क्षेत्र प्राप्त हुए। इराक को ब्रिटिश एवं सीरिया को फ्राँसीसी संरक्षण में रख दिया गया।
फिलिस्तीन, इंग्लैंड को दे दिया गया।

सामाजिक परिणाम: विश्व युद्ध ने समाज को पूरी तरह से बदल दिया। जन्म दर में गिरावट आई क्योंकि लाखों युवा मारे गए (आठ मिलियन लोग मारे गए), लाखों घायल हो गए तथा कई अन्य विधवा और अनाथ हो गए। नागरिकों ने अपनी ज़मीन खो दी और अन्य देशों की ओर प्रवास किया।
महिलाओं की भूमिका में भी परिवर्तन आ गया। उन्होंने कारखानों और दफ्तरों में पुरुषों का स्थान लिया।
उन्होंने कारखानों और कार्यालयों में पुरुषों की जगह लेने में एक प्रमुख भूमिका निभाई। कई देशों ने युद्ध समाप्त होने के बाद महिलाओं को अधिक अधिकार दिये जिसमें वोट देने का अधिकार भी शामिल था।
उच्च वर्गों ने समाज में अपनी अग्रणी भूमिका खो दी। युवा, मध्यम और निम्न वर्ग के पुरुषों तथा महिलाओं ने युद्ध के बाद अपने देश के पुनर्गठन की मांग की।

वर्सेल्स/वर्साय की संधि (Treaty of Versailles):  28 जून, 1919 को वर्साय की संधि पर हस्ताक्षर के साथ प्रथम विश्व युद्ध आधिकारिक रूप से समाप्त हो गया। वर्साय की संधि दुनिया को दूसरे युद्ध में जाने से रोकने का प्रयास थी।
वर्सेल्स/वर्साय की संधि के कुछ प्रमुख बिंदु
यह संधि अलग-अलग खंडों में विभाजित थीं, जिनके अंदर कई धाराएँ शामिल थीं।

प्रादेशिक खंड:
फ्राँस ने अल्सास और लोरेन को वापस पा लिया।
यूपेन और माल्देमी बेल्जियम के हाथों में चले गए। 
पूर्वी क्षेत्रों को पोलैंड ने नष्ट कर दिया था जिससे पूर्वी प्रुशिया क्षेत्रीय रूप से अलग-थलग पड़ गया था।
डेंटिग और मेमेल, पूर्व बाल्टिक जर्मन शहरों को मुक्त शहर घोषित किया गया था।
डेनमार्क ने उत्तरी श्लेस्विग-होल्स्टीन पर कब्ज़ा कर लिया।
जर्मनी ने अपने सभी उपनिवेश खो दिये और विजेता देशों ने उन्हें वापस ले लिया।

सैन्य खंड:

जर्मन नौसेना पर कठोर प्रतिबंध।
सेना की संख्या में नाटकीय कमी (केवल 100,000 सैनिकों की अनुमति तथा टैंक, विमान और भारी तोपखाने रखना निषेध किया गया।)
राइनलैंड क्षेत्र का विसैन्यीकरण।

युद्ध सुधार:

इस संधि ने जर्मनी और उसके उन सहयोगियों को कुल 'हानि और क्षति' के लिये ज़िम्मेदार ठहराया, जो कि मित्र राष्ट्रों द्वारा पीड़ित थे और इसके परिणामस्वरूप उन्हें युद्ध के पुनर्मूल्यांकन के लिये मजबूर किया गया था।

अन्य संधियाँ

न्यूली की संधि (Newly Treaty) बुल्गारिया के साथ हस्ताक्षरित
छोटे बाल्कन देशों को बहुत अधिक क्षेत्रीय नुकसान हुआ तथा बुल्गारिया के अनेक क्षेत्र यूनान, युगोस्लाविया और रोमानिया को दे दिया गया।
सेवर्स की संधि (Sevres Treaty) तुर्की के साथ हस्ताक्षरित
सेवर्स  की संधि बेहद कठिन थी और इसने तुर्की के राष्ट्रीय विद्रोह का नेतृत्व किया। इसके अंतर्गत ओटोमन साम्राज्य विखंडित कर दिया गया तथा इसके अनेक क्षेत्र यूनान और इटली को दे दिये गए। फ्राँस को सीरिया तथा पैलेस्तीन, इराक और ट्रांसजॉर्डन को ब्रिटिश मैंडेट के अंतर्गत कर दिया गया।
हालाँकि युद्ध के कारण कई अन्य महत्त्वपूर्ण सामाजिक और वैचारिक परिवर्तन भी देखे गए।

अमेरिका, जिसने अपने क्षेत्र में संघर्ष का अनुभव किये बिना युद्ध जीत लिया था, पहली विश्व शक्ति बन गया।
युद्ध में पुरुषों के संलग्न होने के कारण महिलाएँ कार्यबल में शामिल हुईं, जो महिलाओं के अधिकारों के लिये एक बड़ा कदम था।
युद्ध के दौरान चरम राष्ट्रवाद का अनुभव किया गया, जिसने कम्युनिस्ट क्रांति का डर पैदा किया तथा कुछ देशों के मध्यम वर्ग की आबादी को चरम अधिकारों की मांग की ओर बढ़ने के लिये प्रोत्साहित किया। इसने फासीवादी आंदोलनों के प्रति आकर्षण भी पैदा किया।
राष्ट्र संघ का गठन: राष्ट्र संघ प्रथम विश्व युद्ध के बाद विकसित एक अंतर्राष्ट्रीय राजनयिक समूह था, जिसका गठन देशों के बीच विवादों को सुलझाने के लिये किया गया।  
WW I और भारत

भारत के लिये प्रथम विश्वयुद्ध का महत्त्व


चूँकि इस युद्ध में ब्रिटेन भी शामिल था और उन दिनों भारत पर ब्रिटेन का शासन था, अतः इस कारण हमारे सैनिकों को इस युद्ध में शामिल होना पड़ा।
इसके अतिरिक्त उस समय भारतीय राष्ट्रवाद के प्रभुत्व का दौर था, राष्ट्रवादी यह मानते थे कि युद्ध में ब्रिटेन को सहयोग देने के परिणामस्वरूप अंग्रेजों द्वारा भारतीय निवासियों के प्रति उदारता बरती जाएगी और उन्हें अधिक संवैधानिक अधिकार प्राप्त होंगे।

इस युद्ध के बाद वापस लौटे सैनिकों ने जनता का मनोबल बढ़ाया।
दरअसल, भारत ने लोकतंत्र की प्राप्ति के वादे के तहत इस विश्व युद्ध में ब्रिटेन का समर्थन किया था लेकिन युद्ध के तुरंत बाद अंग्रेज़ों ने रौलेट एक्ट पारित कर दिया। इसके परिणामस्वरूप भारतीयों में ब्रिटिश हुकूमत के प्रति असंतोष का भाव जागा और उनमें राष्ट्रीय चेतना का उदय हुआ जिसके चलते जल्द ही असहयोग आंदोलन की शुरुआत हुई।

इस युद्ध के बाद यूएसएसआर के गठन के साथ ही भारत में भी साम्यवाद का प्रसार (सीपीआई के गठन) हुआ और परिणामतः स्वतंत्रता संग्राम पर समाजवादी प्रभाव देखने को मिला।
प्रथम विश्व युद्ध में शामिल होने का कारण

भारतीय सैनिकों ने युद्ध के मैदान में बहादुरी के साथ लड़कर अपने कबीले या जाति को सम्मान दिलाने के कार्य को अपने कर्तव्य के रूप में देखा।

एक भारतीय पैदल सैनिक का मासिक वेतन उस समय महज़ 11 रुपए था, लेकिन युद्ध में भाग लेने से अर्जित अतिरिक्त आय किसान परिवार के लिये एक अच्छा विकल्प थी, इसलिये युद्ध में शामिल होने का एक उद्देश्य धन की प्राप्ति को माना जा सकता है।

अक्सर विभिन्न पत्रों में उल्लेख मिलता है कि भारतीय सैनिकों ने सम्राट जॉर्ज पंचम के प्रति व्यक्तिगत कर्त्तव्य की भावना से प्रेरित होकर इस युद्ध में हिस्सा लिया था।

गौरतलब है कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और देश का सामाजिक-आर्थिक विकास एक-दूसरे से अलग नहीं है बल्कि यह सह-संबंधित है। प्रथम विश्व युद्ध ने भारत को वैश्विक घटनाओं और इसके विभिन्न प्रभावों से जोड़ने का 

कार्य किया। इसके विभिन्न प्रभाव निम्नानुसार हैं -

राजनीतिक प्रभाव

युद्ध की समाप्ति के बाद भारत में पंजाबी सैनिकों की वापसी ने उस प्रांत में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ राजनीतिक गतिविधियों को भी उत्तेजित किया जिसने आगे चलकर व्यापक विरोध प्रदर्शनों का रूप ले लिया। उल्लेखनीय है कि युद्ध के बाद पंजाब में राष्ट्रवाद का बड़े पैमाने पर प्रसार हेतु सैनिकों का एक बड़ा भाग सक्रिय हो गया।

जब 1919 का मोंटग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार 'गृह शासन की अपेक्षाओं को पूरा करने में असफल रहा तो भारत में राष्ट्रवाद और सामूहिक नागरिक अवज्ञा का उदय हुआ।
युद्ध हेतु सैनिकों की ज़बरन भर्ती से उत्पन्न आक्रोश ने राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने की पृष्ठभूमि तैयार की।

सामाजिक प्रभाव

युद्ध के तमाम नकारात्मक प्रभावों के वाबजूद वर्ष 1911 और 1921 के बीच भर्ती हुए सैनिक समुदायों की साक्षरता दर में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। युद्ध के मैदान में पुरुषों की उपयोगिता की धारणा का उन दिनों महत्त्व होने के कारण सैनिकों ने अपने विदेशी अभियानों हेतु पढ़ना-लिखना सीखा।

युद्ध में भाग लेने वाले विशेष समुदायों का सम्मान समाज में बढ़ गया।
इसके अतिरिक्त गैर-लड़ाकों की भी बड़ी संख्या में भारत से भर्ती की गई, जैसे कि नर्स, डॉक्टर इत्यादि। अतः इस युद्ध के दौरान महिलाओं के कार्य-क्षेत्र का भी विस्तार हुआ और उन्हें सामाजिक महत्त्व भी प्राप्त हुआ।

हालाँकि भारतीय समाज को ऐसी परिस्थितियों में आवश्यक सेवाओं से वंचित कर दिया गया जहाँ पहले से ही एस प्रकार की  सेवाओं/कौशल (नर्स, डॉक्टर) का अभाव था।

आर्थिक प्रभाव

ब्रिटेन में भारतीय सामानों की मांग में तेज़ी से वृद्धि हुई क्योंकि ब्रिटेन में उत्पादन क्षमता पर युद्ध के कारण बुरा प्रभाव पड़ा था।

हालाँकि युद्ध के कारण शिपिंग लेन में व्यवधान उत्पन्न हुआ लेकिन इसका यह अर्थ था कि भारतीय उद्योगों को ब्रिटेन और जर्मनी से पूर्व में आयात किये गए इनपुट की कमी की वजह से असुविधा का सामना करना पड़ा था। अतः अतिरिक्त मांग के साथ-साथ आपूर्ति की बाधाएँ भी मौजूद थीं।

युद्ध का एक और परिणाम मुद्रास्फीति के रूप में सामने आया। वर्ष 1914 के बाद छह वर्षों में औद्योगिक कीमतें लगभग दोगुनी हो गईं और तेज़ी से बढ़ती कीमतों ने भारतीय उद्योगों को लाभ पहुँचाया।

कृषि उत्पादों की कीमत औद्योगिक कीमतों की तुलना में धीमी गति से बढ़ी। अगले कुछ दशकों में विशेष रूप से महामंदी (Great Depression) के दौरान वैश्विक वस्तुओं की कीमतों में गिरावट की प्रवृत्ति जारी रही।

खाद्य आपूर्ति, विशेष रूप से अनाज की मांग में वृद्धि से खाद्य मुद्रास्फीति में भी भारी वृद्धि हुई। यूरोपीय बाज़ार को नुकसान के कारण जूट जैसे नकदी फसलों के निर्यात को भी भारी नुकसान पहुँचा।

उल्लेखनीय है कि इस बीच सैनिकों की मांग में वृद्धि के चलते भारत में जूट उत्पादन में संलग्न मज़दूरों की संख्या में कमी हुई और बंगाल के जूट मिलों के उत्पादन को भी हानि पहुँची जिसके लिये मुआवज़ा दिया गया परिणामतः आय असमानता में वृद्धि हुई।

वहीं, कपास जैसे घरेलू विनिर्माण क्षेत्रों में ब्रिटिश उत्पादों में आई गिरावट से लाभ भी हुआ जो कि युद्ध पूर्व बाज़ार पर हावी था।

ब्रिटेन में ब्रिटिश निवेश को पुनः शुरू किया गया, जिससे भारतीय पूंजी के लिये अवसर सृजित हुए।

हालाँकि यह "सभी युद्धों को समाप्त करने के लिये एक युद्ध" के विचार के विपरीत निकला। वर्सेटाइल की संधि के माध्यम से जर्मनी की आर्थिक बर्बादी और राजनीतिक अपमान को सुनिश्चित किया गया जो कि द्वितीय विश्व युद्ध के रूप में परिणत हुआ।

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